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सुंदर कथा ३३(श्री भक्तमाल – गौ भक्त राजर्षि दिलीप)

​शास्त्रो में राजा को भगवान् की विभूति माना गया है। साधारण व्यक्ति से श्रेष्ट राजा को माना जाता है, राजाओ में भी श्रेष्ट सप्तद्वीपवती पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट को और अधिक श्रेष्ट माना गया है। ऐसे ही पृथ्वी के एकछत्र सम्राट सूर्यवंशी राजर्षि दिलीप एक महान गौ भक्त हुऐ। 

महाराज दिलीप और देवराज इन्द्र में मित्रता थी । देवराज के बुलाने पर दिलीप एक बार स्वर्ग गये । देव असुर संग्राम में देवराज ने महाराज दिलीप से सहायता मांगी। राजा दिलीप ने सहायता करने के लिए हाँ कर दी और देव असुर युद्ध हुआ । युद्ध समाप्त होने पर स्वर्ग से लौटते समय मार्ग में कामधेनु मिली; किंतु दिलीप ने पृथ्वीपर आने की आतुरता के कारण उसे देखा नहीं । कामधेनु को उन्होंने प्रणाम नहीं किया , न ही प्रदक्षिणा की।  इस अपमान से रुष्ट होकर कामधेनु ने शाप दिया- मेरी संतान (नंदिनी गाय) यदि कृपा न करे तो यह पुत्रहीन ही रहेगा । 
महाराज दिलीप को शाप का कुछ पता नहीं था । किंतु उनके कोई पुत्र न होने से वे स्वयं, महारानी तथा प्रजा के लोग भी चिन्तित एवं दुखी रहते थे । पुत्र प्राप्ति की इच्छा से महाराज दिलीप रानी के साथ कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ के आश्रमपर पहुंचे । महर्षि सब कुछ समझ गए। महर्षि ने कहा यह गौ माता के अपमान के पाप का फल है। सुरभि गौ की पुत्री नंदिनी गाय हमारे आश्रम पर विराजती है । महर्षि ने आदेश दिया- कुछ काल आश्रम में रहो और मेरी कामधेनु नन्दिनी की सेवा करो। 
महाराज ने गुरु की आज्ञा स्वीकार कर ली । महारानी सुदक्षिणा प्रात: काल उस गौ माता की भलीभाँति पूजा करती थी । आरती उतारकर नन्दिनी को पतिके संरक्षण-में वन में चरने के लिये विदा करती । सम्राट दिनभर छाया की भाँती उसका अनुगमन करते, उसके ठहरने पर ठहरते, चलनेपर चलते, बैठने पर बैठते और जल पीनेपर जल पीते । संध्या काल में जब सम्राट के आगे-आगे सद्य:प्रसूता, बालवत्सा (छोटे दुधमुँहे बछड़े वाली) नन्दिनी आश्रम को लौटती तो महारानी देवी सुदक्षिणा हाथमें अक्षत-पात्र लेकर उसकी प्रदक्षिणा करके उसे प्रणाम करतीं और अक्षतादिसे पुत्र प्राप्तिरूप अभीष्ट-सिद्धि देनेवाली उस नन्दिनी का विधिवत् पूजन करतीं ।
अपने बछड़े को यथेच्छ पय:पान(दूध पान) कराने के बाद दुह ली जानेपर नन्दिनी की रात्रिमें दम्पति पुन: परिचर्या करते, अपने हाथों से कोमल हरित शष्प-कवल खिलाकर उसकी परितृप्ति करते और उसके विश्राम करने पर शयन करते । इस तरह उसकी परिचर्या करते इक्कीस दिन बीत गये । एक दिन वन में नन्दिनी का अनुराग करते महाराज दिलीप की दृष्टि क्षणभर अरण्य (वन) की प्राकृतिक सुंदरता में अटक गयी कि तभी उन्हें नन्दिनी का आर्तनाद सुनायी दिया । 
वह एक भयानक सिंह के पंजों में फँसी छटपटा रही थी । उन्होंने आक्राम क सिंह को मारने के लिये अपने तरकश से तीर निकालना चाहा, किंतु उनका हाथ जडवत् निश्चेष्ट होकर वहीं अटक गया, वे चित्रलिखे से खड़े रह गये और भीतर ही भीतर छटपटाने लगे, तभी मनुष्य की वाणी में सिंह बोल उठा- राजन्! तुम्हारे शस्त्र संधान का श्रम उसी तरह व्यर्थ है जैसे वृक्षों को उखाड़ देनेवाला प्रभंजन पर्वत से टकराकर व्यर्थ हो जाता है । मैं भगवान् शिव के गण निकुम्भ का मित्र कुम्भोदर हूं ।
भगवान् शिव ने सिंहवृत्ति देकर मुझे हाथी आदिसे इस वन के देवदारुओ की रक्षाका भार सौंपा है । इस समय जो भी जीव सर्वप्रथम मेरे दृष्टि पथ में आता है वह मेरा भक्ष्य बन जाता है । इस गाय ने इस संरक्षित वनमें प्रवेश करने की अनधिकार चेष्टा की है और मेरे भोजन की वेलामे यह मेरे सम्मुख आयी है, अत: मैं इसे खाकर अपनी क्षुधा शान्त करूँगा । तुम लज्जा और ग्लानि छोड़कर वापस लौट जाओ । 

किंतु परदु:खकातर दिलीप भय और व्यथा से छटपटाती, नेत्रोंसे अविरल अश्रुधारा बहाती नन्दिनी को देखकर और उस संध्याकाल मे अपनी माँ की उत्कण्ठा से प्रतीक्षा करनेवा ले उसके दुधमुँहे बछड़े का स्मरण कर करुणा-विगलित हो 
उठे । नन्दिनी का मातृत्व उन्हें अपने जीवन से कहीं अधिक मूल्यवान् जान पड़ा और उन्होंने सिंह से प्रार्थना की कि वह उनके शरीर को खाकर अपनी भूख मिटा हो और बालवत्सा नन्दिनी को छोड़ दे। 

सिंह ने राजा के इस अदभुत प्रस्ताव का उपहास करते हुए कहा- राजन्! तुम चक्रवर्ती सम्राट  हो । गुरु को नन्दिनी के बदले करोडों दुधार गौएँ देकर प्रसन्न कर सकते हो । अभी तुम युवा हो, इस तुच्छ प्राणीके लिये अपने स्वस्थ-सुन्दर शरीर और यौवन की अवहेलना कर जानकी बाजी लगाने वाले स्रम्राट! लगता है, तुम अपना विवेक खो बैठे हो ।यदि प्राणियों पर दया करने का तुम्हारा व्रत ही है तो भी आज यदि इस गायके बादले में मैं तुम्हें खा लूँगा तो तुम्हारे मर जानेपर केवल इसकी ही विपत्तियों से रक्षा हो सकेगी और यदि तुम जीवित रहे तो पिता की भाँती सम्पूर्ण प्रजा की  निरन्तर विपत्तियों से रक्षा करते रहोगे । 
इसलिये तुम अपने सुख भोक्ता शरीर की रक्षा करो । स्वर्गप्राप्ति के लिये तप त्याग करके शरीर की कष्ट देना तुम जैसे अमित ऐश्वर्यशालियों के लिये निरर्थक है । स्वर्ग ?अरे वह तो इसी पृथ्वीपर है । जिसे सांसारिक वैभव-विलास के समग्र साधन उपलब्ध हैं, वह समझो कि स्वर्ग में ही रह रहा है । स्वर्गका काल्पनिक आकर्षण तो मात्र विपन्नो के लिए ही है,सम्पन्नो के लिए नहीं। इस तरह से सिंह ने राजा को भ्रमित करने का प्रयत्न किया। 
भगवान् शंकर के अनुचर सिंह की बात सुनकर अत्यंत दयालु महाराज दिलीप ने उसके द्वारा आक्रान्त नंदिनी को देखा जो अश्रुपूरित कातर नेत्रों से उनकी ओर देखती हुई प्राणरक्षाकी याचना कर रही थी । 
राजा ने क्षत्रियत्व के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए उत्तर दिया- नहीं सिह ! नहीं, मैं गौ माता को तुम्हारा भक्ष्य बनाकर नहीं लौट सकता । मैं अपने क्षत्रियत्व को क्यों कलंकित करूं ?क्षत्रिय संसार में इसलिये प्रसिद्ध हैं कि वे विपत्ति से औरों की रक्षा करते हैं । राज्य का भोग भी उनका लक्ष्य नहीं । उनका लक्ष्य तो है लोकरक्षासे कीर्ति अर्जित करना । निन्दा से मलिन प्राणों और राज्य को तो वे तुच्छ वस्तुओ की तरह त्याग देते हैं इसलिये तुम मेरे यश:शरीर पर दयालु होओ । 
मेरे भौतिक शरीर को खाकर उसकी रक्षा करो; क्योंकि यह शरीर तो नश्वर है, मरणधर्मा है । इसलिये इसपर हम जैसे विचारशील पुरुषों की ममता नहीं होती । हम तो यश: शरीरके पोषक हैं। यह मांस का शारीर न भी रहे परंतु गौरक्षा से मेरा यशः शारीर सुरक्षित रहेगा । संसार यही कहेगा की गौ माता की रक्षा के लिए एक सूर्यवंश के राजा ने प्राण की आहुति दे दी । एक चक्रवर्ती सम्राट के प्राणों से भी अधिक मूल्यवान एक गाय है।

सिंह ने कहा – अगर आप अपना शारीर मेरा आहार बनाना ही चाहते है तो ठीक है। सिंह के स्वीकृति दे देने पर राजर्षि दिलीप ने शास्त्रो को फेंक दिया और उसके आगे अपना शरीर मांसपिंड की तरह खाने के लिये डाल दिया और वे जाके सिर झुकाये आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगे, तभी आकाश से
विद्याधर उनपर पुष्पवृष्टि करने लगे । 

नन्दिनी ने कहा हे पुत्र ! उठो ! यह मधुर दिव्य वाणी सुनकर राजा को महान् आश्चर्य हुआ और उन्होंने वात्सल्यमयी जननी की तरह अपने स्तनोंसे दूध बहाती हुई नन्दिनी गौ को देखा, किंतु सिंह दिखलायी नहीं दिया । आश्चर्यचकित दिलीप से नन्दिनी ने कहा- हे सत्युरुष ! तुम्हारी परीक्षा लेनेके लिये मैंने ही माया स्व सिंह की सृष्टि की थी ।
महर्षि वसिष्ठ के प्रभावसे यमराज भी मुझपर प्रहार नहीं कर सकता तो अन्य सिंहक सिंहादिकी क्या शक्ति है । मैं तुम्हारी गुरुभक्ति से और मेरे प्रति प्रदर्शित दयाभाव से अत्यन्त प्रसन्न हूं । वर माँगो ! तुम मुझे दूध देनेवाली मामूली गाय मत समझो, अपितु सम्पूर्ण कामनाएं पूरी करनेवाली कामधेनु जानो । 
राजा ने दोनों हाथ जोड़कर वंश चलानेवाले अनन्तकीर्ति पुत्रकी याचना की नन्दिनीने ‘तथास्तु’ कहा। उन्होंने कहा राजन् मै आपकी गौ भक्ति से अत्याधिक प्रसन्न हूं ,मेरे स्तनों से दूध निकल रहा है उसे पत्तेके दोने में दुहकर पी लेनेकी आज्ञा गौ माता ने दी और कहा तुम्हे अत्यंत प्रतापी पुत्र की प्राप्ति होगी।
राजाने निवेदन किया-‘ मां ! बछड़े के पीने तथा होमादि अनुष्ठान के बाद बचे हुए ही तुम्हारे दूध को मैं पी सकता हूं । दूध पर पहला अधिकार बछड़े का है और द्वितीय अधिकार गुरूजी का है। 
राजा के धैर्यने नन्दिनो के हृदय को जीत लिया । वह प्रसन्नमना कामधेनु राजा के आगे आगे आश्रम को लौट आयी । राजा ने बछड़े के पीने तथा अग्निहोत्र से बचे दूधका महर्षि की आज्ञा पाकर पान किया, फलत: वे रघु जैसे महान् यशस्वी पुत्र से पुत्रवान् हुए और इसी वंश में गौ भक्ति के प्रताप से स्वयं भगवान् श्रीराम ने अवतार ग्रहण किया। 
महाराज दिलीप की गोभक्ति तथा गोसेवा सभी के लिये एक महानतम आदर्श बन गयी । इसीलिये आज भी गो भक्तो के परिगणनामे महाराज दिलीप का नाम बड़े ही श्रद्धाभाव एवं आदर से सर्वप्रथम लिया जाता है ।  इस चरित्र से यह बात सिद्ध हो गयी की सप्तद्वीपवती पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट से अधिक श्रेष्ठ एक गौ माता है ।
।।सर्वदेवमयी गौ माता की जय।।

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